माँ के बिना एक साल -३

कैसे ज़िंदगी उधड़ जाती है अचानक
कैसे खो सा गया है वजूद मेरा
ले गया कोई माँ छीन के मुझसे
खुदाया पता नहीं क्या बचा मेरा

बहुत बातें अब भी है इस ज़हान में
देखने सुन लेने में लाजवाब
पता नहीं क्या हुआ है मुझे
सुनता दिखता नहीं एक भी ख़्वाब

हर कोशिश में लगा हूँ की जी सकूँ किसी तरह
फिर कुछ मुस्कुरा सकूँ बस थोड़ा ज़रा
लेकिन शायद होता नहीं किसी को मंज़ूर
हर हँसी किसी तरह आँसुओं की होती है नज़र

लोग कहते हैं समय भर देता है ज़ख़्म सभी
गहरे हों, नागवार हों जैसे भी
समझता नहीं मेरे कौनसे हैं
हर हवा से ताज़े हो उठते हैं ये फिर सभी

एक कश्ती बिना पतवार के कोई
बिना किसी किनारे सहारे के
बह रहा हूँ, ज़ख़्मी, दुखी और रूसवां
अब मिले ठहराव तो बात बने कोई